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मेरे अंदर आधे गवांर और आधे शहर का कुछ इस तरह से मिलावट है की हमेशा गाँव में शहर और शहर में गाँव ढूँढता हूँ...पिछले एक दशक से जादा टीवी में पत्रकारिता करते हुए लगातार ये महसूस हुआ है हबहुत कुछ पीछे छूटा खास वो बाते जो दूसरो के लिए बकवास या अनाप-शनाप होगा...

Thursday, December 27, 2012

https://www.youtube.com/watch?v=cw4rVP12sXc

https://www.youtube.com/watch?v=hHw7ZXsxFZs

https://www.youtube.com/watch?v=B0IsTbHVgVM

https://www.youtube.com/watch?v=hHukdMh2aLQ

https://www.youtube.com/watch?v=rgG_Sde0jmE

https://www.youtube.com/watch?v=YrjbrD-uPwQ

http://www.facebook.com/media/set/?set=vb.100000052924906&type=2

Thursday, November 29, 2012


                               चन्द्रकला   
(ये संस्मरण मेरे दोस्त बातचीत  के दौरान सुनी हुई बातों के बाद लिखने के लिए किसी भूत की तरह मेरा पीछा किया आखिर उनकी जिद के सामने  नहीं मेरे आलसीपन  ने हार मन ली उसी का नतीजा आपके सामने है......और चन्द्रकला फंतासी नहीं हकीकत है .)                          

आठ दस साल पुरानी बात है....
मुंबई में बीएसपी सुप्रीमो मायावती आयीं हुईं थी. होटल ताज में उनकी पत्रकारों से भेंटवार्ता चल रही थी...
बहन मायावती और पत्रकारों की ये मुलाक़ात उनकी पार्टी चिन्ह की चाल चल रही थी. हाथी की रफ़्तार से पत्रकार बहनजी पर सवाल दाग रहे थे. और बहनजी भी उसी चाल में उनके सवालों का जवाब दे रही थीं...
मैं साथी पत्रकारों के साथ बैठा था... लेकिन मन कहीं और था. सुबह से ही मन व्याकुल था. किसी भी चीज में मन नहीं लग रहा था...
तभी मेरे फ़ोन की घंटी बज उठी. गाँव से फ़ोन आया था. फ़ोन के बाद समझ आया की मन क्यों अशांत है...
घर पहुँच कर माई को फ़ोन के बारे में बताया... माई खबर सुनते ही फूट-फूटकर रोने लगी. दो दिन तक उन्होंने खाना नहीं खाया. बस यही कहती रही - बेटालगता है देवता हम लोगों से नाराज़ हैं...
माँ की हालत और गाँव से आई खबर... एक को देखकर और दूसरी को सुनकर मैं भी शून्य में चला गया... चन्द्रकला नहीं रही...
मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि चन्द्रकला को अब मैं कभी नहीं देख पाउँगा... मेरे बचपन की वो पहली चाहत थी... बचपन से ही मैं मुंबई में रहा था... स्कूल की सालाना छुट्टियों में जब मैं मुंबई से अपने गाँव जाता था तो मुझे सबसे ज्यादा मिलने की खुशी होती थी चन्द्रकला से...
हालाँकि चन्द्रकला को चाहने वालों में केवल मैं ही नहीं शामिल था. मेरे बड़े भाइयों और मुंबई से गाँव जाने वाले दूसरे रिश्तेदारों के नाम भी उस लिस्ट में शुमार था...
ट्रेन पर बैठते ही आपस में चन्द्रकला को लेकर बातचीत शुरू हो जाती थी - कैसी होगी चन्द्रकलाहमें पहचानेगी या नहीइसके जैसे कई और सवाल मन में आते थे. इसके अलावा हम लोगों में इस बात को लेकर भी बात होती थी कि चन्द्रकला को हम में से सबसे ज्यादा कौन प्यार करता हैऔर वो किसको सबसे ज्यादा भाव देती हैबात बहस में तब्दील हो जाती थी... और बड़े-बुजुर्ग को बीच-बचाव करने पहुँच जाना पड़ता था. कमोबेश ये हमारी गाँव जाने की सभी रेल-यात्रा का अभिन्न हिस्सा बन गया था.
चन्द्रकला अब भी मेरे ख्यालों में थी... गाँव के अलावा मुंबई में भी उससे मेरी मुलाक़ात हो जाती थी...कभी घरवालों से उसकी कहानी सुनते हुएतो कभी सपनों में...
अक्सर वो मेरे सपनों में आती थी...
कभी स्कूल के शरारती बच्चों से मुझे बचाने वाली देवी माँ बनकर तो कभी मिस्टर इंडिया  की तरह अदृश्य दोस्त बनकर...
लेकिन असलियत में मेरी चन्द्रकला से मुलाक़ात केवल गाँव में ही होती थी. पहली बार उससे कब मिला थाये याद नहीं. लेकिन बचपन की पहली यादों में जो चेहरा सबसे पहले उभर कर आता है वो चन्द्रकला का है.
कभी घर, कभी बाग़ में उसे देखने की बेताबी इतनी रहती थी कि गर्मियों में लू की लहर चलने के बावजूद मैं खाली पैर बगीचे की तरफ़ भाग जाया करता था... और घर में आने पर मार भी पड़ती थी. लेकिन चन्द्रकला के लिए सब सह लेता था...
लेकिन चन्द्रकला अब इस दुनिया में नहीं है...
हमारे घर की लक्ष्मी थी चन्द्रकला...
बिहार के सोनपुर के मेले से जब वो हमारे घर आई थी तब वो दो ढाई फीट जितनीही बड़ी थी...  वो चन्द्रकला कब बन गयी ये पता ही नहीं चला...
ये मेरे जन्म से पहले की बात है...
जब चन्द्रकला आई थी तब गाँव में हमारा पक्का मकान बन रहा था. दरवाज़े नहीं लगे थे. चन्द्रकला को जब भी भूख लगती तो वो बिना रुकावट के रसोई में चली जाती और खाने का पूरा सामान चट कर जाती.
पूरे इलाके में चन्द्रकला का बोल-बाला था. दूर-दूर से लोग उसे देखने आते थे. कहते हैं कि अगर चन्द्रकला जैसी कोई मालिक को 'सूट कर जाये तो किस्मत बदल जाती है...
न्द्रकला हम सभी को 'सूटकर गई थी... परिवार के लोगों ने अपनी समृद्धि की एक बड़ी वजह चन्द्रकला को मानने लगे थे... चन्द्रकला को केवल उसके नाम से ही पुकारा जाता था. बाकी किसी जैसे शब्दों की पाबंदी थी. गाँव में चन्द्रकला के खाने लिए कुछ बीघे के खेत थे. चन्द्रकला घर के बड़े और सम्मानित सदस्यों में एक नाम था...
कई बार किसी फिल्म की तरह मेरे बचपन की कई यादें आँखों के सामने घूम जाया करती है...
जब गाँव के तालाब में हम उसे नहलाने के लिए ले जाते थे तब उसे वापस पानी से निकालने के लिए हमे घंटो मिन्नतें करनी पड़ती थी. लालच देना पड़ता था तब कहीं जाकर वो किनारे आती थी...
जब हम झांवा (जली हुई बेड़ोल ईंट) से चन्द्रकला को रगड़ - रगड़ कर नहलाते थे वो उसे बड़ा मज़ा आता था. चन्द्रकला कभी-कभी बदमाशी भी करती थी... वो घर का दरवाज़ा छेक कर खड़ी हो जाती थी जब तक चाची या माँ उसे खाने के लिए गुड़ ना मिल जाए... दरवाजे पर पत्थर के कोल्हू में होने पर हाथ पकड़कर खाना देने के लिए इशारे करना ...
कई बार हम अपने दोस्तों के सामने शान दिखाने के लिए चन्द्रकला को लटक जाते थे...
अपनी भाषा में कहूँ तो दिन भर एंटरटेनमेंट...
पता ही नहीं चलता था कि छुट्टियां कब बीत गई? अब मुंबई वापस जाना है...
लेकिन एक दिन सुबह जब सोई हुई चन्द्रकला को जगाने की कोशिश की तो वो अपनी गरदन नहीं उठा पा रही थी... पशु डाक्टर ने बताया कि गरदन और सिर की किसी नस के फटने की वजह से ऐसा हुआ है ....
और कुछ समय बाद ही घर के लोगों को पहचानने वाली आँखे और पुरा शरीर पत्थरा  गए थे...
घर पर सभी लोग रोने लगे... तेरह दिन बाद तेरवीं हुई... पूरे गाँव को भोजन कराया गया...

अब मैं गाँव कई बार सालों तक नहीं जाता...
लेकिन जब भी जाता हूँ, दरवाजे के बाहर वो खाली कोल्हू... बगीचे में वो महुआ का पे... गाँव के बाहर का वो तालाब... मुझे कचोटते है... है तो सब कुछ वैसे ही... लेकिन सब सूना - सूना है...
चन्द्रकला के बारे में जब मैं अपनी दो साल की बेटी गार्गी को कभी बताऊंगा, तो पुछेगी जरुर - क्या कभी एलिफेंट भी फैमिली मेंबर होते हैं?
वो शायद यकिन न करे.......

Tuesday, May 29, 2012

अनाप शनाप:         यह तुम थी (ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के म...

अनाप शनाप:
        यह तुम थी (ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के म...
:         यह तुम थी  (ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के मेरे अपने है) 1- हॉस्पिटल  के ICU में लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर पि छल े 7 दिनों...

Thursday, May 17, 2012


        यह तुम थी 

(ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के मेरे अपने है)
1- हॉस्पिटल के ICU में लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर पिछले 7 दिनों से पड़ी राजकुमारी की जान कहाँ अटकी थी ये डॉक्टरों को भी पता नहीं था ...लम्बी बीमारी के बाद जब ज्यादातर रक्त नलिकाए सुख गई थी इस लिए डॉक्टरों ने कंधे और छाती के बीच चिर लगाकर वहाँ से दवाईयाँ दे रहे थे... सतावे दिन भाई साहब आये और बेड के करीब जाकर धीरे से राजकुमारी के कानों में कहा ''अब जाओ .... तुम्हारी ये हालत मुझसे देखी नहीं जाती.... संघ  पहले छोड़ने के लिए मैंने तुम्हे अब माफ़ किया .... जल्द ही मिलूँगा.'' सात दिन पहले ब्रेन हैमरेज के बाद कोमा में गई राजकुमारी इसके बाद दो घंटे में ही चल बसी... भैया कभी हारे नहीं थे, दो जवान बेटों की दुर्घटना में मौत के बाद भी उनके चेहरे पर हताशा नहीं थी ...लेकिन आज बूढ़े, थके हुए और हताश दिख रहे थे .... उन्हें रोना आता नहीं .... लेकिन छः महीने में एक दिन अचानक बीमार पड़े जब तक डाक्टर कुछ समझा पाते बुखार दिमाग पर चढ़ा.... खुद राजकुमारी से मिलने लम्बे सफ़र पर निकल चुके थे...
      
२- शशांक का  सुबह फोन आया की ''रवि जी माँ नहीं रही'' शशांक मेरे दोस्तों में से है,
 मै कई बार जब भी उनसे घर पर मिला हूँ  उनके पिता की उम्र क्या है इसका अंदाजा लगा ही नहीं पाया लगा था कोई 54-55 साल के होंगे !ऐसा मेरा मानना था लेकिन खुद दोस्त ने ही बाद में बताया कि पिता  अब करीब अठात्तर है...वो कैसे इतना फिट रहते है ?  मै लगातार शशांक से बाते करता रहा हूँ ... लेकिन जब शमशान से वापस लौट रहा था अचानक नजर शशांक के पिता पर पड़ी वो मुझे लगा की अब वो अस्सी बरस से कम नहीं है ...शशांक इन दिनों पिता अकेले ना रहे इस लिए उनके साथ ज्यादा वक्त दे रहे है... लेकिन ये बुढ़ापा अचानक उनके पिता में इतना कैसे आ गया .. ये पता  नहीं ?
३- बचपन से प्यारेलाल को मै जनता हूँ इंसानी बुराइयों की जितनी खूबिया होनी चाहिए करीब सभी उनमे थी... मुंबई में कमाई के बाद कभी गाँव में बीबी और बच्चों का ख्याल भी करना चाहिए इस बारे में उन्हेंने कभी सोंचा ही नहीं था .... एक दिन बीबी, बच्चो को छोड़  शहर आई.... और....प्यारेलाल को जानने वाले अजूबा देख रहे थे कि साल भर पहले का नास्तिक आदमी आस्तिक हो चुका था... नशा और दूसरी औरतों के पास जाने की आदत छुट चुकी थी.....और मकसद था बीबी और बच्चो  के भविष्य की तैयारी करनी ... अब प्यारेलाल रिटायर्ड हो चुके है और अपने खेतो में काम करते है ... पति-पत्नी में इतना जमती है कि आस-पास के लोग अब उन्हें लैला-मजनू बुलाते है ... मेरे एक शरारती भतीजे ने जब प्यारेलाल से ये पूंछा की 'भैया अगर भाभी पहले मर जाएगी तो आप कैसे रहोगे' तो करीब 75 साल के प्यारेलाल का जवाब था ''मै खुद फांसी लगा लूँगा'' 

कभी  यूरोप में लम्बे समय तक साथ रहने वाले जोड़ो पर सर्वे किया गया, निष्कर्ष निकला कि ज्यादातर जोड़ों के चेहरों में समानता होती है .... उसकी वजह हाव-भाव का एक जैसा मिलना भी हो सकता है ? लेकिन जब हिंदी के कवि बाबा नगार्जुन बुढ़ापे में प्रेम पर कविता लिखते है ....

 यह तुम थी.....

कर गई चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं
सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खड़ा कोढ़ी गूलर
ऊपर उठ आई भादों की तलैया
जुड़ा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं !                                     -   बाबा नागार्जुन 
- जर्जर तन में  प्रेम की ज्यादा जरुरत होती है ... समय के साथ ही साथी  ( यह तुम ) की कुछ आदत ही ऐसी  लग जाती है फिर जीवन उद्देश्य ही कुछ हल्का हो जाता है...बस यह तुम के लिए ----