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मेरे अंदर आधे गवांर और आधे शहर का कुछ इस तरह से मिलावट है की हमेशा गाँव में शहर और शहर में गाँव ढूँढता हूँ...पिछले एक दशक से जादा टीवी में पत्रकारिता करते हुए लगातार ये महसूस हुआ है हबहुत कुछ पीछे छूटा खास वो बाते जो दूसरो के लिए बकवास या अनाप-शनाप होगा...

Thursday, December 8, 2011

सियासी बिसात के मजबूर मोहरे !

( पिछले दिनों सामना हिंदी ने  एक  आलेख माँगा था खास कर मुंबई में रहा रहे उत्तर-भारतीय बनाम मराठी को लेकर चल रहे विवाद पर.... ये सामना का वही लेख है शायद पसंद आये ...शुक्रिया )
मुंबई किसकी ?
मराठी की, भईया की या इस शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आये और यही के होकर रह गए...
सवाल जितना मुश्किल है, जवाब उस से भी ज्यादा कठिन...लेकिन मुश्किल ज्यादा तब आती है जब इस सवाल का जवाब चुनाव के करीब खोजा जाता है...
अगले साल बीएमसी के चुनाव है..चुनावी दंगल के बाद ये तय हो पायेगा कि अगले पांच साल के लिए मुंबई पर किसका राज चलेगा...लेकिन इस लड़ाई के दौरान पिसेगा मुम्बईकर...मुंबई मेरी है या तेरी है का मुद्दा फिर से खूब उछलेगा ... एक मुम्बईकर दूसरे मुम्बईकर को फिर से शक की नज़र से देखेगा..एक मुम्बईकर को लगेगा की दूसरा उसके हक का मार रहा है...
ये मेरी निराशात्मक सोच नहीं है...दरअसल पिछले कुछ सालों से मैं ये मेरी मुंबई के साथ होते देख रहा हूँ...चुनाव करीब आते ही राजनेता सभी मुद्दे कहीं पीछे छोड़ देते हैं...मुंबई के विकास और आधारभूत सुविधाएँ को सुधारने की बात मुद्दे नहीं रहते और मुद्दा बन जाता है कि मुंबई किसकी है, मुंबई पर किसका हक है....
इसलिए जब उत्तर मुंबई से कांग्रेस के सांसद संजय निरुपम के बयान पर मुझे कोई अचरच नहीं हुई...निरुपम ने बयान दिया था कि अगर उत्तर भारतीयों ने एक दिन आराम किया, तो मुंबई ठप्प हो जाएगी...निरुपम ने ऐसा क्यों कहा, ये तो वो ही बेहतर तरीके से बता सकते हैं...लेकिन ये कहते हुए उन्हें शायद पुरानी बातें याद नहीं रही होगी...सालों पहले वो बिहार के रोहतास जिले से पटना, दिल्ली होते हुए मुंबई पहुंचे थे...तब के और अब के निरुपम में जो अंतर है वो मुंबई की ही देन है...इस शहर की बदौलत ही उन्होंने सिफर से शिखर का सफ़र किया है.. ऐसे में अगर कोई उस शहर को ठप्प करने वाला बयान देता है तो मुझे उस शख्स पर तरस आता है...शायद उन्होंने ऐसा बयान राजनैतिक कारणों के चलते दिया हो क्योंकि बीएमसी चुनाव के काउंटडाउन के साथ बिहार का महापर्व छठ भी नजदीक था...और कुछ सालों से छठ पूजा उन लोगों के निशानों पर है जिन्हें सूर्य को अर्ध्य देने वाले श्रद्धालु नज़र नहीं आते बल्कि नज़र आता है मुंबई में उत्तर भारतीयों का शक्ति-प्रदर्शन... संजय निरुपम सालों से मुंबई के जुहू तट पर छठ पूजा का आयोजन करते आये हैं...शायद वो अपने बयान से छठ पूजा के ज़रिये राजनीति गलियारे में अपनी ढुगढुगी बजाना चाहते हों...हुआ भी ऐसा ही...उनके बयान पर मुंबई में खूब बवाल मचा, और न्यूज़ चैनलों की ओबी वैन उनके छठ पूजा के कार्यक्रम के बाहर ३ दिन खड़ी रही..मतलब उन्हें और उनके कार्यक्रम को लगातार मीडिया कवरेज और स्पोट लाइट मिलता रहा...
दरअसल मैं लम्बे समय से टीवी न्यूज़ से जुडा रहा हूँ जिसकी वजह से मैं ये लगातार देखता आ रहा हूँ कि कैसे नेता ऐसे मौकों की तलाश में अपनी नज़र गडाए रहते हैं कि वो जनता से जुड़े मुद्दों को उठाये बिना ही उनका रहनुमा बन जाये...
कुछ ऐसा ही साल २००९ में देखने को मिला...सभी नए विधायकों को महाराष्ट्र के विधानसभा में शपथ दिलाया जा रहा था..हिंदी में शपथ लेने की वजह से एक विधायक की पिटाई हो गई...थोड़ी देर बाद पीटने वाले नेता मुंबई के इस्लाम जिमखाना में अपने समर्थकों के साथ थप्पड़ की शेखी बघारते दिखे...उन्हें गर्व था कि उन्होंने हिंदी के लिए लड़ाई लड़ी..वो फुले नहीं समां रहे थे कि अब इस शहर में उनसे बड़ा कोई उत्तर भारतीये नेता नहीं है...उनसे बड़ा कोई हिंदी बोलने वाले उत्तर भारतीयों का हितैषी नहीं है...उनके चेहरे से उस वक़्त ऐसा ही लग रहा था जैसे थप्पड़ नहीं, उन्हें बहादुरी का कोई मेडल मिला हो... दूसरी तरफ दादर के शिवाजी पार्क के एक फुटपाथ पर थप्पड़ मारने वाले विधायक टीवी न्यूज़ चैनलों से खुद को दिखाए जाने के लिए धन्यवाद दे रहे थे साथ ही अपने समर्थकों को टीवी कैमरों के सामने खड़े होने के लिए पुकार रहे थे...लेकिन इन सब के बीच इस बात पर शायद ही किसी ने गौर किया हो कि मंत्रिमंडल के शपथ समारोह में कुछ मंत्रियों ने मराठी में शपथ नहीं लिया था लेकिन इस पर किसी को आपत्ति नहीं...असल में विधान सभा के घटना में कुछ तो ये भी मानते हैं कि पीटने और पिटाई करने वालों में कुछ फिक्सिंग तो नहीं थी...
तो सवाल उठता है कि कहाँ से और कौन सी आवाज़ आती है कि हिंदी भाषी इस शहर को ठप्प करना चाहता है...क्या रोजाना कुआँ खोदकर पानी पीने वाले इस शहर को ठप्प कर सकते हैं? क्या रोज़गार देने वाला, परिवार चलने वाला शहर से वो ऐसे पेश आ सकता है? उनके दिमाग में तो बस और ज्यादा काम करके कुछ और रूपए कमाने का जद्दोजेहाद चलते रहता है...या ये आवाज़ उसकी है जिसे सिर्फ वोट से मतलब है...किसी बौरहे की गाय की तरह इन दिनों इस शहर का हिंदी भाषी नेतृत्व विहीन है...नेताओं को उसकी याद तब आती है जब वोट रूपी दूध निकलना होता है....तब नेता लप्पड़ खाए या खिलाये मकसद होता है भाषाई और प्रांतवाद की राजनीति कर काम निकालना .
संजय निरुपम के मुंबई ठप्प करने वाले बयान के बाद मेरे पास एक अंग्रेजी चैनल के प्रमुख ने जब किसी बड़े हिंदी भाषी से मिलने की इच्छा जताई जिसका कोई राजनीतिक सरोकार न हो तो मेरे लिए ये बड़ा मुश्किल काम बन गया...कई हिंदी भाषियों को जनता हूँ जो विभिन्न पार्टियों में बड़े नेता हैं, कुछ उनके उत्तर भारतीय सेल के प्रभारी...मुझे ऐसा कोई नहीं दिखा जो नामी हैं लेकिन बिना राजनीतिक सोच या झुकाव के..
करीब ४ साल पहले जब राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना मुंबई के सड़कों पर उत्तर भारतीय टैक्सी ड्राईवर और फेरी वालों की पिटाई कर रहे थे तब मैंने मुंबई में मराठी और उत्तर भारतीयों के बीच रिश्ते पर एक डॉक्यूमेंटरी बनायीं थी... बनाते वक़्त मेरी मुलाक़ात किरण नगरकर से हुई...मैंने उनसे मराठी-गैर मराठी पर हो रहे राजनीति पर सवाल पूछा था...उनका जवाब था कि पराजित मानसिकता के लोग विकास के बजाय इस तरह के हथकंडे अपनाते है...
मेरा मानना है कि हिंदी भाषियों की नुमाइंदगी के दावे करने वाले मुंबई के नेताओं को अपनी पार्टियों के मुखिया से ये क्यों नहीं पूछते कि जिन राज्यों से पलायन हो रहा है वहां वो विकास कार्य क्यों नहीं कर रहे हैं..आज राहुल गाँधी जब यूपी के वोटरों को महाराष्ट्र से भीख नहीं मांगने की नसीहत देते हैं...यू पी में अगले साल विधान सभा चुनाव है इसलिए राहुल को प्रदेश की याद आई नहीं तो देश और दूसरे कई राज्यों में सत्ता उन्ही कि पार्टी के पास सबसे ज्यादा वक़्त रही है...हिंदी भाषी प्रदेशों में विकास की गाड़ी रुकने की ज़िम्मेदारी राहुल क्यों नहीं लेते...
हिंदी भाषियों के नेता विकास की नहीं बल्कि राजनीति उन मुद्दों के लिए कर रहे है जिनका हिंदी प्रदेशो के लोगो से कोई लेना-देना ही नहीं है...ऐसा केवल महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि दिल्ली, पंजाब और आसाम में भी हो रहा है...मेरा मानना है कि ऐसी राजनीति काफी खतरनाक तो है ही साथ ही उत्तर भारतीयों के साथ नाइंसाफी क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदी भाषियों ने अपनी योग्यता का प्रमाण दिया है। हिंदी भाषियों ने, देश के जिस हिस्से में भी वे रहते हैं, बिना किसी भेदभाव के, उसके विकास में अपना शत प्रतिशत योगदान किया है।
मैं खुद उत्तर भारतीय हूँ...मेरा परिवार उत्तर प्रदेश से इस शहर में करीब १२० साल पहले आया था...मेरे परिवार ने शहर को बढ़ते और उन्नति करते देखा और उसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लिया..लेकिन जब कभी भी मराठी-गैर मराठी पर राजनीति होती है तो इस शहर में मेरे परिवार का १२० साल पुराना नाता बौना हो जाता है...इस संकीर्ण राजनीतिक एजेंडा मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर ये कबतक चलेगा और क्यों चल रहा है....क्योंकि मुझे लगता है जो मुंबई में रहता है वो मुंबईकर और जो महाराष्ट्र में रहता है वो महाराष्ट्रीयन है... मराठी तो इस बात को मानते हैं कि ‘पूरे विश्व ही माझे घर’ यानी पूरा विश्व ही मेरा घर है...और ये सोच आज की नहीं है... ग्लोबल विलेज की सोच सैकड़ों साल पहले संत ज्ञानेश्वर ने महाराष्ट्र को दी थी।
इसलिए जब बयान आता है कि शहर किसका है, कौन इस शहर को ठप्प कर देगा तो सचमुच इस शहर के उस मज़दूर के मन में डर ज़रुर भर जाता है...क्योंकि उसका असर भी तुरंत सड़कों पर देखता है...दिहाड़ी करने वाले मजदूरों पर लाठियां बरसती है...टैक्सी टूटती है... वो काम करता है....एक दिन काम बंद होने की कीमत वो जनता है...उसे मालूम है कि वो काम पर जायेगा तब ही घर में चूल्हा जलेगा...ऐसे में वो शहर को क्यों ठप्प होते देखेगा...मुझे मालूम है कि तालियाँ दोनों हाथों से बजती हैं लेकिन मेरी शिकायत उनसे ज्यादा हैं जो उत्तर भारतीयों को वोट बैंक समझते हैं..अपनी जागीर समझते हैं...खुद को उनका हितैषी कहकर उलजुलूल बयान देकर उनका नुक्सान ही करते हैं...मेरी गुजारिश है कि वो उत्तर भारतीयों को उनके हाल पर छोड़ दें, वो खुद के भरोसे रोजी-रोटी कमाने के लिए सैकड़ों मील दूर मुंबई आया है..उसके लिए क्या भला है और क्या बुरा वो खुद तय करने में सक्षम है...उसे अपनी राजनीति के बिसात पर मोहरा न बनायें...




Wednesday, July 6, 2011

दही हांडी

वाकडी चाल (टेढ़ी) में इस बार सचिन और तान्या गोविंदा नहीं खेलेंगे बल्की खुद मटकी बन लटके रहेंगे ... अब तक इस त्यौहार की वो शान थे लोगो को महीने भर से प्रेक्टिस  कराने से लेकर कहाँ-कहाँ मटकी फोडनी है और मानवीय पिरामिड (मीनार, थर ) में कौन किस उंचाई  पर रहेगा ये जिम्मेदारी भी उनकी होती थे... माने तो गोविंदा त्यौहार  के दोनों मैनेजर थे और बाकी साथी मजदूर .... मै अकसर उस टोली का हिस्सा भर रहा हूँ लीडर रहे सचिन और तान्या... लेकिन गोविंदाओ को जमा करने लेकर मैनेजमेंट के बीच  वो मटकी कब बन गए इसका अभी भी वाकडी चाल   के लोगो को यकींन ही  नहीं आता .
 
     मुंबई में बैठे मेरे दोस्तों त्यौहार और मस्ती की बात करते हुए  मुंबई की दही-हांडी यानी गोविंदा तक पहुँच गए ... बचपन से लगातार कालाचौकी और लालबाग इलाकों में ऐसे  त्यौहार को मै देखता आ रहा हूँ ...आज टीवी चैनलों पर जो गोविंदा हम देख रहे है वो पहले की तरह नहीं है  चाल- गली मोहल्ले से शुरू खेल कुछ इलाको के  दही-हांडी तक सिमटा था...मटके की उंचाई सिमटी थी और उस वक्त तक ज्यादा गिराकर मारने की गोविंदा की घटनाये शायद ही हुआ करती थी.. आम तौर पर हड्डी  टूटने, हाथ-पैर में चोट की जो एक दो घटनाये होती भी थे उसके लिए किसी एक को जो थर में शामिल था उसे जिम्मेदार मन लिया जाता था की.... शायद ज्यादा चढ़ गई होगी... लेकिन पिछले  साल दही काल के इस खेल में तीन नवयुवक मौत की भेंट चढ़ा गए  वजह थी त्यौहार प्रतियोगिता बन गया है इनामी धन रसूखदार आयोजक उंहें और उचाई चढाने के लिए मजबुर कर रहे है.        
  लेकिन मै बात तान्या और सचिन की कर रहा हूँ दरअसल दसवीं  फेल होने के बाद अब उनके पास काम था त्यौहार मनाना, क्रिकेट खेलना , और चाल की लड़कियों की दूसरो से बचाना, एक ऐसा सरोकार जिसके लिए कुछ मिलना तो नहीं लेकिन दूसरो से लड़ाई जरुर हो जाती थी...
 
उस साल गोविंदा पथक के साथ निकले थे  वो दोनों... दूसरी चाल के लोगो से किसी छोटी सी बात पर लड़ाई हो गई बात मार-पीट तक आ गई बिच-बचाव में बात आगे नहीं बढी लेकिन एक रंजीश की शुरुआत हो चुकी थी... कुछ दिनों बाद सचिन को अकेला पाकर दूसरी चाल के लोगो पिटाई कर दी चोट चहरे पर आई थी...इस लिए तान्या और दोस्तों ने बदला लेने की तैयारी भी कर ली और मारपीट करने वाले एक लडके की कुछ पिटाई इस तरह से कर दी की हास्पिटल में एक दिन के उसके मौत हो गई... अब तान्या का भाई 'दगडू' और सचिन की नौकरी करने वाली मान 'नयना' पुलिस चौकी और अदालत के चक्कर लगा रहे थे...
 
छः  महीने बाद दोनों बहार निकले  तो दोनों किसी शापित देवता से कम नहीं थे कभी अपनो के लिए दूसरो से लड़ाई तो कभी खुद के लिए अपनो से वसूली... जेल ने उन्हें काफी कुछ सिखा दिया था...लेकिन हत्या की रंजीश ख़त्म नहीं हुई थी कुछ दिनों के बाद तीन लोग चाल में आये  और तान्या को करीब दर्ज़न भर गोली मार कर चले गए इस बार रजिंश  में चाल के लोगो ने 'गैंगवार' जैसी घटना अपने करीब देखी  था.  अब बारी थी सचिन ने  उसने दूसरी गैंग के लोगो के साथ मिलकर फिर दो लोगो की हत्या की और एक दिन फिर पुलिस की गोली का इंतजार भी ख़त्म हुआ.... पुलिस ने तान्या और सचिन के नाम दर्जन भर डकैती और कई हत्या के मामले का हल खोज निकाला था...
 
    गोविंदा फिर आया है वाकडी चाल में इस बार एक मटकी के साथ दो मटकी लटकी है तान्या और सचिन के नाम, पारदर्शी प्लास्टिक में  कुछ सौ रुपयों  के साथ खीरा और केले के भी साथ लटके हुए है साथ तान्या और सचिन के फोटो भी.. लेकिन चाल में इस बार 'गोविंदा आला रे' का कोई उल्लास दिखाई नहीं दे रहा.          

Saturday, February 26, 2011

ये वक्त गुज़र जाएगा

                                                                           
 
कहानी कुछ यूँ शुरू हुई की घर का कमाने वाला उम्र के पहले चल बसा और घर में दो छोटे बच्चों के साथ एक बेवा 'पति' के मुवावजे से गुजारा  चला रहे थी. मुंबई में शराबी पड़ोसी की नजर उस घर पर थी जिसमे सभी रहते थे ..कुछ दिनों के बाद ही नया तांडव शुरू हुआ... रोज बच्चों को गाली और बेवा को हिकारत से शुरुआत हुई और  घर के अंदर आकर मार-पीट तक पहुँच  गई..बात उस रिश्तेदार के पास तक गई  जिसे परिवार से थोड़ी हमदर्दी थी.. लेकिन मामला पड़ोस का था  और दूर से आकर इस झगड़े को रोज सुलझाया भी नहीं जा सकता था. तरीका ये निकला गया की इलाके के पुलिस थाने में किसी अधिकारी को कुछ ले-देकर डरवाया जाए. बिना परिवार वालो को बताये रिश्तेदार ने किया भी यही एक अधिकारी को भरोसे में लेकर ये बात तय कर ली की अगर पड़ोसी को धमका कर बच्चों और बेवा को रोज के लफड़े से निजात दिलवा दे तो पांच हजार उसे देंगे. हुआ वही अधिकारी ने पड़ोसी के घर के दबिश दी दो-चार लाफे मारे .... और पड़ोसी से ये लिखवा के भी लिया की आइन्दा वो ऐसी हरकत नहीं करेगा. अब थी बारी रिश्तेदार को पैसे देने की... तय रकम लेकर वो पुलिस अधिकारी के पास गया लेकिन मामला उलटा था अब दरोगा पैसा लेने के लिए तैयार नहीं... और बार बार ये का रहा था हम असहाय और गरीब से पैसे नहीं लेते (आम्ही गोर-गरीबां शी पैइशे  नाय घेत)... ये कहानी मैं बता इस लिए रहा हूँ की मैं रिश्तेदार और बेवा के परिवार दोनों  को जनता हूँ...  
 
असल में शुरुआत दोपहर खाने के वक्त एक सहयोगी ने की, कहा की सरकारी नौकरी मिलाने के बाद अब ईमानदारी  नहीं बेईमानी करूँगा... लेकिन मैं जानता हूँ परवरिश में कई बार अच्छाई और बुराई इस कदर पिला दी जाती है की वो जीवन भर छूटने का नाम नहीं लेती... एक दूसरे दोस्त है वो लगातार कहते है 'रविजी अब तो मैं झोल (भ्रष्टाचार) करूंगा' और ये कह कर बड़े खुले ठहाके भी लगा लेते है... दोस्त के लिए ये मज़ाक होता है क्योंकि बचपन की घुट्टी में 'विचार'  कुछ इस तरह से पिलाये गए है की उसके लिए झोल करना संभव नहीं..
 
मेरे दोस्त इन दिनों विचारों और सिद्धांतों के द्वन्द में फसे हुए है लेकिन उन पर परवरिश अभी भी हावी है... लेकिन कब तक... ग्लोबलाइजेशन के दौर में अब सिद्धांत, विचार और परवरिश मुश्किलों में है. प्रसार माध्यम और इंटरनेट ने दुनिया करीब लाई है लेकिन सोच व्यक्तिवादी हो गई है ऐसे में सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं होती, लेकिन आशा वादियों को अभी भी उम्मीद है. वो इसे एक दौर मान रहे है... और उनका तर्क है... आज़ादी के बाद गाँधीवाद का असर था, वादे पूरे ना होने पर मर्क्सवाद का आया,  आर्थिक सुधारों के नारे पर ग्लोबलाइजेशन के दौर की शुरुआत हुई शायद इसके बाद का वक्त हमारे निजी रिश्तों में बँटवारे का भी हो... चलो मान लेते है..
                                               
                                            तुम्हें गैरो से कब फ़ुरसत, हम अपनों से कब खाली/
                                           चलो बस हो गया मिलना ना हम खाली ना तुम खाली//   
 
मैं तो सिर्फ ये कह सकता हूँ जो कभी अकबर के पूछने पर बीरबल ने बताया था की 'वो क्या है जो बुरे दौर में अच्छा और अच्छे दौर में बुरा लगता है'... तब बीरबल ने कहा था "ये वक्त गुज़र जाएगा"
फिर हम लौटे परिवार, विचार, और सिंद्धांतो की तरफ एक बार... उस आने वाले अच्छी दौर के लिए 'चियर्स'