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मेरे अंदर आधे गवांर और आधे शहर का कुछ इस तरह से मिलावट है की हमेशा गाँव में शहर और शहर में गाँव ढूँढता हूँ...पिछले एक दशक से जादा टीवी में पत्रकारिता करते हुए लगातार ये महसूस हुआ है हबहुत कुछ पीछे छूटा खास वो बाते जो दूसरो के लिए बकवास या अनाप-शनाप होगा...

Saturday, February 26, 2011

ये वक्त गुज़र जाएगा

                                                                           
 
कहानी कुछ यूँ शुरू हुई की घर का कमाने वाला उम्र के पहले चल बसा और घर में दो छोटे बच्चों के साथ एक बेवा 'पति' के मुवावजे से गुजारा  चला रहे थी. मुंबई में शराबी पड़ोसी की नजर उस घर पर थी जिसमे सभी रहते थे ..कुछ दिनों के बाद ही नया तांडव शुरू हुआ... रोज बच्चों को गाली और बेवा को हिकारत से शुरुआत हुई और  घर के अंदर आकर मार-पीट तक पहुँच  गई..बात उस रिश्तेदार के पास तक गई  जिसे परिवार से थोड़ी हमदर्दी थी.. लेकिन मामला पड़ोस का था  और दूर से आकर इस झगड़े को रोज सुलझाया भी नहीं जा सकता था. तरीका ये निकला गया की इलाके के पुलिस थाने में किसी अधिकारी को कुछ ले-देकर डरवाया जाए. बिना परिवार वालो को बताये रिश्तेदार ने किया भी यही एक अधिकारी को भरोसे में लेकर ये बात तय कर ली की अगर पड़ोसी को धमका कर बच्चों और बेवा को रोज के लफड़े से निजात दिलवा दे तो पांच हजार उसे देंगे. हुआ वही अधिकारी ने पड़ोसी के घर के दबिश दी दो-चार लाफे मारे .... और पड़ोसी से ये लिखवा के भी लिया की आइन्दा वो ऐसी हरकत नहीं करेगा. अब थी बारी रिश्तेदार को पैसे देने की... तय रकम लेकर वो पुलिस अधिकारी के पास गया लेकिन मामला उलटा था अब दरोगा पैसा लेने के लिए तैयार नहीं... और बार बार ये का रहा था हम असहाय और गरीब से पैसे नहीं लेते (आम्ही गोर-गरीबां शी पैइशे  नाय घेत)... ये कहानी मैं बता इस लिए रहा हूँ की मैं रिश्तेदार और बेवा के परिवार दोनों  को जनता हूँ...  
 
असल में शुरुआत दोपहर खाने के वक्त एक सहयोगी ने की, कहा की सरकारी नौकरी मिलाने के बाद अब ईमानदारी  नहीं बेईमानी करूँगा... लेकिन मैं जानता हूँ परवरिश में कई बार अच्छाई और बुराई इस कदर पिला दी जाती है की वो जीवन भर छूटने का नाम नहीं लेती... एक दूसरे दोस्त है वो लगातार कहते है 'रविजी अब तो मैं झोल (भ्रष्टाचार) करूंगा' और ये कह कर बड़े खुले ठहाके भी लगा लेते है... दोस्त के लिए ये मज़ाक होता है क्योंकि बचपन की घुट्टी में 'विचार'  कुछ इस तरह से पिलाये गए है की उसके लिए झोल करना संभव नहीं..
 
मेरे दोस्त इन दिनों विचारों और सिद्धांतों के द्वन्द में फसे हुए है लेकिन उन पर परवरिश अभी भी हावी है... लेकिन कब तक... ग्लोबलाइजेशन के दौर में अब सिद्धांत, विचार और परवरिश मुश्किलों में है. प्रसार माध्यम और इंटरनेट ने दुनिया करीब लाई है लेकिन सोच व्यक्तिवादी हो गई है ऐसे में सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं होती, लेकिन आशा वादियों को अभी भी उम्मीद है. वो इसे एक दौर मान रहे है... और उनका तर्क है... आज़ादी के बाद गाँधीवाद का असर था, वादे पूरे ना होने पर मर्क्सवाद का आया,  आर्थिक सुधारों के नारे पर ग्लोबलाइजेशन के दौर की शुरुआत हुई शायद इसके बाद का वक्त हमारे निजी रिश्तों में बँटवारे का भी हो... चलो मान लेते है..
                                               
                                            तुम्हें गैरो से कब फ़ुरसत, हम अपनों से कब खाली/
                                           चलो बस हो गया मिलना ना हम खाली ना तुम खाली//   
 
मैं तो सिर्फ ये कह सकता हूँ जो कभी अकबर के पूछने पर बीरबल ने बताया था की 'वो क्या है जो बुरे दौर में अच्छा और अच्छे दौर में बुरा लगता है'... तब बीरबल ने कहा था "ये वक्त गुज़र जाएगा"
फिर हम लौटे परिवार, विचार, और सिंद्धांतो की तरफ एक बार... उस आने वाले अच्छी दौर के लिए 'चियर्स'