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मेरे अंदर आधे गवांर और आधे शहर का कुछ इस तरह से मिलावट है की हमेशा गाँव में शहर और शहर में गाँव ढूँढता हूँ...पिछले एक दशक से जादा टीवी में पत्रकारिता करते हुए लगातार ये महसूस हुआ है हबहुत कुछ पीछे छूटा खास वो बाते जो दूसरो के लिए बकवास या अनाप-शनाप होगा...

Saturday, March 30, 2013

'ए' फॉर एंकर



                                    'ए'  फॉर एंकर 


कुछ यूँ पूछ लिया था मैंने ..... घर वाले तो बड़े खुश होते होंगे  जब आप को वो टीवी पर दिखते होगें ..... कंधा  उचककर बड़े बेफिक्र अंदाज़ में उसने कहा था उन्हें  भी फर्क नहीं परत और मुझे भी नहीं .... लेकिन जब भी मुझे अपनी एंकरिग सबसे ज्यादा अच्छी  लगाती है तब यही सोचती हूँ की ....काश पापा ने मुझे एक बार इस तरह से देखा होता ..... ये कशक है और रहेगी भी .... उन्हें मुझ पर नाज था .... मेरी सभी अच्छी और कई बार गलत निर्णयों को लेकर वो मेरा समर्थन करते रहे ....लेकिन इस अंदाज़ में मुझे देखकर जो आँखें सबसे ज्यादा चमकती वो पापा की आँखें होती .... 

चेहरे पर मस्ती थी ..... आवाज़ में खनक .......और सवाल पुछते वक्त कभी संजीदा -  तो कभी उग्र अंदाज़ भी....जरुरत पड़े तो लटके झटके भी....एक औसत वजूद लेकिन आँफिस में कई बार मेक-अप में घूमते फिरते ठीक-ठाक महिलाओ को भी ये जाता देना की तुम मुझसे कम हो ....आम तौर पर टीवी में चिल्लाने वाले अच्छे एंकर माने जाते है .....वो उनमें से ही थी ...अपनी ख़ामियों को बिलकुल ना मानना ....

.मैं जनता तो उसे  सालों से था लेकिन ना काम का सबका था और न जानने की फ़ुरसत थी उसकी इमेज बिंदास थी कभी कपड़ो को लेकर .... कभी ठहाको... कभी लड़को के बिच लगातार घुलेन मिलने की आदत से .... हांलाकि पहली बार वो मेरे पास तब आई जब छुट्टियों  पर घर जाना था...और किसी जरिये घर जाने की जुगाड़ में मेरी मदत चाहिए थी  ... कुछ लोगो से बात कर मैंने समस्या का समाधान कर दिया और यही से जान पहचान भी कुछ बढ़ी ...

आप उसका  नाम कुछ भी रखा सकते है .... टीवी चैनलों में वैसे भी एंकर कुछ इसी अंदाज़ में आपको कही भी दिख जाएँगी ...

देर रात का वक्त था एक दिन अचानक उसने फोन किया और कहा की मुझे क्राईम ब्रांच से एक काल आया था कह रहे थे की तुम्हारे बारे में हमारे पास शिकायत आई है जल्द ही तुम्हें बुलाया जायेग…उसकी आवाज़ में डर था और मुझसे मदत की उम्मीद भी .... मैंने नंबर लेकर कहा की फोन बंद कर के सो जाओ .... जो कुछ है सुबह देखेंगे ... दूसरे दिन पता चला की काल क्राईम ब्रांच का नहीं था फोन करने  वाला लगातार माफ़ी मांग रहा था ... असल में काल  किसी आशिक का था जो पहचान तो छुपाना चाहता लेकिन डर दिखा कर बात भी करना चाहता था ....हांलाकि की मामला वही ख़त्म हुआ और काल आना बंद भी हो गया .... लेकिन इसके बाद वो खुल सी गई थी  .... अब तक एक पहेली की तरह छुपे  चहरे ने  अपना नकाब उठा  दिया था ....'ए ' अब  दोस्त थी ....

'मेक -ओवर' और 'ग्रूमिंग' मिडिया की भाषा में यही कहा जाता है किसी नए प्रोफेशनल को पालिश होने में .... 'ए' इसी का कमाल थी ....'तुम कितनी काली हो'.... उसका  पति झगड़ा शुरू करने की शुरुआत यही से करता था ......चौबीस की उम्र में ही घर वालो ने एक साफ्टवेयर इंजीनियर से शादी कर दी थी शुरुआत के दिन तो कुछ समझ में नहीं आया  लेकिन बाद में 'ए ' की समझ में ये आने लगा था ...की  पति किसी न किसी वजह से उसके पास आने से कतराता रहता है ..... बात तब खुली जब वो अपने एक पुरुष मित्र का लगातार जिक्र करता और उसे लेकर परेशान रहने लगा .... घर में सास की नजर में सारी  गलती 'ए ' की थी .... ससुराल और मायके वालो के बिच -बचाव के बाद डाक्टर ,सेक्सोलजिस्ट  और बहुत से निम -हाकिमो ने  अपने नुख्से अजमा लिए थे .... लेकिन रिजल्ट कुछ नहीं .....अब तक ' चला ले बेटी ' कहने वाले अब रिश्ता खत्म करने के लिए तैयार हुए .... लेकिन दो साल बीत चूका था छ: महीने क़ानूनी खाना पूर्ति में गए ....'ए ' ने अब  अपने पैरो पर खडे  होने का फैसला लिया था ....घर वाले राजी भी हो गए ....

बिखरी जिंदगी .... टूटा आत्मविश्वास ...और छोटे शहर की परवरिश ...विरासत में 'ए ' के पास थे तो यही .... किसी चैनल में इन्टर्नसिप  , तो कही फ्रिलासिंग शुरुआत यही थी .... साथ मिला  कुछ उन लड़कियों का जो 'ए ' की तरह ही अपनी पहचान तलाश रहे थे .... एक फ़्लैट में ५-६ लड़किया किसी चिडियों की चंबा से कम नहीं थे सब की अपनी कहानिया थी अपना सफ़र था लेकिन एक दुसरे के साथ सभी खुश थे .....अब वाईस-ओवर, प्रोग्राम प्रोड्यूस करने के आलावा 'ए' ने कैमरे से दोस्ती कर ली थी लैंस के सामने कैसे चेहरे को चहकते रखना है या  गंभीर ये तरकीब मिल गई थी ..... कभी पति से 'मोटी  और काली' कहलाने वाली एक लड़की अब शानदार आत्मविश्वास के साथ खुद को स्लिम-ट्रिम कर चुकी थी ....ड्रेस सेन्स बदल चूका था बोलने का अंदाज भी .... छोटे शहर की छाप अब  कोसो दूर पीछे छुट गई थी ....'ए' अब एक दम शहरी और मार्डन बन चुकी थी  ..... उसके पास अब अपनी पहचान थी .... साथ ही कई नौकरियों के आफर भी ....

एक दिन मैंने  'ए' को  फोन किया  ''हैलो सर ... कुछ  चहकते हुए 'ए ' ने शुरुआत की .... मेरे पास ढेरो सवाल थे  ....कहा हो  ? कैसे हो  ? क्या कर रही हो  ? इस बार जवाब बड़ा था कहा इन दिनों मेरी भी तबियत ठीक नहीं थी साथ ही दादी की सेहत काफी ख़राब है इस लिए घर आई हूँ ......पिछली नौकरी में मेरी अपने बॉस से नहीं जमी तो मैंने जाब छोड़ दिया नई  नौकरी पकड़ी तो जरुर लेकिन काम करने का मन नहीं कर रहा है .... इन दिनों मै  ठीक नहीं हूँ सर ... कई बार गाड़ी घर पर छोड़ कर टैक्सी से आफिस चली जाती हूँ .....सब कुछ अजीब सा कर रही हूँ ..... महीने भर से घर पर हूँ  लेकिन नए  आफिस को बताया तक नहीं है .... मैंने फिर सवाल किया अब आगे क्या करना चाहती हो ? जवाब था कई जगहों पर जाना चाहती हूँ .... मुंबई , पुणे और दूसरी जगहों पर जहाँ भी मन लगे हर उस जगह ....कही खोई हूँ मै  ..... अब खुद को ढूढना  है सर ..... अपने लिए .....


कहते है  शिव ने अपने त्रिशूल से आत्मा और जीव को  दो टूकड़ो  में कर दिया था हर कोई अपने उसी अर्धांश को ढूढ़  रहा है .... शायद 'ए ' को अपना खोया हुआ अर्धांश कही मिल जाय इस दुवा के साथ ...... आमीन   

Thursday, December 27, 2012

https://www.youtube.com/watch?v=cw4rVP12sXc

https://www.youtube.com/watch?v=hHw7ZXsxFZs

https://www.youtube.com/watch?v=B0IsTbHVgVM

https://www.youtube.com/watch?v=hHukdMh2aLQ

https://www.youtube.com/watch?v=rgG_Sde0jmE

https://www.youtube.com/watch?v=YrjbrD-uPwQ

http://www.facebook.com/media/set/?set=vb.100000052924906&type=2

Thursday, November 29, 2012


                               चन्द्रकला   
(ये संस्मरण मेरे दोस्त बातचीत  के दौरान सुनी हुई बातों के बाद लिखने के लिए किसी भूत की तरह मेरा पीछा किया आखिर उनकी जिद के सामने  नहीं मेरे आलसीपन  ने हार मन ली उसी का नतीजा आपके सामने है......और चन्द्रकला फंतासी नहीं हकीकत है .)                          

आठ दस साल पुरानी बात है....
मुंबई में बीएसपी सुप्रीमो मायावती आयीं हुईं थी. होटल ताज में उनकी पत्रकारों से भेंटवार्ता चल रही थी...
बहन मायावती और पत्रकारों की ये मुलाक़ात उनकी पार्टी चिन्ह की चाल चल रही थी. हाथी की रफ़्तार से पत्रकार बहनजी पर सवाल दाग रहे थे. और बहनजी भी उसी चाल में उनके सवालों का जवाब दे रही थीं...
मैं साथी पत्रकारों के साथ बैठा था... लेकिन मन कहीं और था. सुबह से ही मन व्याकुल था. किसी भी चीज में मन नहीं लग रहा था...
तभी मेरे फ़ोन की घंटी बज उठी. गाँव से फ़ोन आया था. फ़ोन के बाद समझ आया की मन क्यों अशांत है...
घर पहुँच कर माई को फ़ोन के बारे में बताया... माई खबर सुनते ही फूट-फूटकर रोने लगी. दो दिन तक उन्होंने खाना नहीं खाया. बस यही कहती रही - बेटालगता है देवता हम लोगों से नाराज़ हैं...
माँ की हालत और गाँव से आई खबर... एक को देखकर और दूसरी को सुनकर मैं भी शून्य में चला गया... चन्द्रकला नहीं रही...
मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि चन्द्रकला को अब मैं कभी नहीं देख पाउँगा... मेरे बचपन की वो पहली चाहत थी... बचपन से ही मैं मुंबई में रहा था... स्कूल की सालाना छुट्टियों में जब मैं मुंबई से अपने गाँव जाता था तो मुझे सबसे ज्यादा मिलने की खुशी होती थी चन्द्रकला से...
हालाँकि चन्द्रकला को चाहने वालों में केवल मैं ही नहीं शामिल था. मेरे बड़े भाइयों और मुंबई से गाँव जाने वाले दूसरे रिश्तेदारों के नाम भी उस लिस्ट में शुमार था...
ट्रेन पर बैठते ही आपस में चन्द्रकला को लेकर बातचीत शुरू हो जाती थी - कैसी होगी चन्द्रकलाहमें पहचानेगी या नहीइसके जैसे कई और सवाल मन में आते थे. इसके अलावा हम लोगों में इस बात को लेकर भी बात होती थी कि चन्द्रकला को हम में से सबसे ज्यादा कौन प्यार करता हैऔर वो किसको सबसे ज्यादा भाव देती हैबात बहस में तब्दील हो जाती थी... और बड़े-बुजुर्ग को बीच-बचाव करने पहुँच जाना पड़ता था. कमोबेश ये हमारी गाँव जाने की सभी रेल-यात्रा का अभिन्न हिस्सा बन गया था.
चन्द्रकला अब भी मेरे ख्यालों में थी... गाँव के अलावा मुंबई में भी उससे मेरी मुलाक़ात हो जाती थी...कभी घरवालों से उसकी कहानी सुनते हुएतो कभी सपनों में...
अक्सर वो मेरे सपनों में आती थी...
कभी स्कूल के शरारती बच्चों से मुझे बचाने वाली देवी माँ बनकर तो कभी मिस्टर इंडिया  की तरह अदृश्य दोस्त बनकर...
लेकिन असलियत में मेरी चन्द्रकला से मुलाक़ात केवल गाँव में ही होती थी. पहली बार उससे कब मिला थाये याद नहीं. लेकिन बचपन की पहली यादों में जो चेहरा सबसे पहले उभर कर आता है वो चन्द्रकला का है.
कभी घर, कभी बाग़ में उसे देखने की बेताबी इतनी रहती थी कि गर्मियों में लू की लहर चलने के बावजूद मैं खाली पैर बगीचे की तरफ़ भाग जाया करता था... और घर में आने पर मार भी पड़ती थी. लेकिन चन्द्रकला के लिए सब सह लेता था...
लेकिन चन्द्रकला अब इस दुनिया में नहीं है...
हमारे घर की लक्ष्मी थी चन्द्रकला...
बिहार के सोनपुर के मेले से जब वो हमारे घर आई थी तब वो दो ढाई फीट जितनीही बड़ी थी...  वो चन्द्रकला कब बन गयी ये पता ही नहीं चला...
ये मेरे जन्म से पहले की बात है...
जब चन्द्रकला आई थी तब गाँव में हमारा पक्का मकान बन रहा था. दरवाज़े नहीं लगे थे. चन्द्रकला को जब भी भूख लगती तो वो बिना रुकावट के रसोई में चली जाती और खाने का पूरा सामान चट कर जाती.
पूरे इलाके में चन्द्रकला का बोल-बाला था. दूर-दूर से लोग उसे देखने आते थे. कहते हैं कि अगर चन्द्रकला जैसी कोई मालिक को 'सूट कर जाये तो किस्मत बदल जाती है...
न्द्रकला हम सभी को 'सूटकर गई थी... परिवार के लोगों ने अपनी समृद्धि की एक बड़ी वजह चन्द्रकला को मानने लगे थे... चन्द्रकला को केवल उसके नाम से ही पुकारा जाता था. बाकी किसी जैसे शब्दों की पाबंदी थी. गाँव में चन्द्रकला के खाने लिए कुछ बीघे के खेत थे. चन्द्रकला घर के बड़े और सम्मानित सदस्यों में एक नाम था...
कई बार किसी फिल्म की तरह मेरे बचपन की कई यादें आँखों के सामने घूम जाया करती है...
जब गाँव के तालाब में हम उसे नहलाने के लिए ले जाते थे तब उसे वापस पानी से निकालने के लिए हमे घंटो मिन्नतें करनी पड़ती थी. लालच देना पड़ता था तब कहीं जाकर वो किनारे आती थी...
जब हम झांवा (जली हुई बेड़ोल ईंट) से चन्द्रकला को रगड़ - रगड़ कर नहलाते थे वो उसे बड़ा मज़ा आता था. चन्द्रकला कभी-कभी बदमाशी भी करती थी... वो घर का दरवाज़ा छेक कर खड़ी हो जाती थी जब तक चाची या माँ उसे खाने के लिए गुड़ ना मिल जाए... दरवाजे पर पत्थर के कोल्हू में होने पर हाथ पकड़कर खाना देने के लिए इशारे करना ...
कई बार हम अपने दोस्तों के सामने शान दिखाने के लिए चन्द्रकला को लटक जाते थे...
अपनी भाषा में कहूँ तो दिन भर एंटरटेनमेंट...
पता ही नहीं चलता था कि छुट्टियां कब बीत गई? अब मुंबई वापस जाना है...
लेकिन एक दिन सुबह जब सोई हुई चन्द्रकला को जगाने की कोशिश की तो वो अपनी गरदन नहीं उठा पा रही थी... पशु डाक्टर ने बताया कि गरदन और सिर की किसी नस के फटने की वजह से ऐसा हुआ है ....
और कुछ समय बाद ही घर के लोगों को पहचानने वाली आँखे और पुरा शरीर पत्थरा  गए थे...
घर पर सभी लोग रोने लगे... तेरह दिन बाद तेरवीं हुई... पूरे गाँव को भोजन कराया गया...

अब मैं गाँव कई बार सालों तक नहीं जाता...
लेकिन जब भी जाता हूँ, दरवाजे के बाहर वो खाली कोल्हू... बगीचे में वो महुआ का पे... गाँव के बाहर का वो तालाब... मुझे कचोटते है... है तो सब कुछ वैसे ही... लेकिन सब सूना - सूना है...
चन्द्रकला के बारे में जब मैं अपनी दो साल की बेटी गार्गी को कभी बताऊंगा, तो पुछेगी जरुर - क्या कभी एलिफेंट भी फैमिली मेंबर होते हैं?
वो शायद यकिन न करे.......

Tuesday, May 29, 2012

अनाप शनाप:         यह तुम थी (ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के म...

अनाप शनाप:
        यह तुम थी (ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के म...
:         यह तुम थी  (ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के मेरे अपने है) 1- हॉस्पिटल  के ICU में लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर पि छल े 7 दिनों...

Thursday, May 17, 2012


        यह तुम थी 

(ये कहानी नहीं मेरे आस-पास के मेरे अपने है)
1- हॉस्पिटल के ICU में लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर पिछले 7 दिनों से पड़ी राजकुमारी की जान कहाँ अटकी थी ये डॉक्टरों को भी पता नहीं था ...लम्बी बीमारी के बाद जब ज्यादातर रक्त नलिकाए सुख गई थी इस लिए डॉक्टरों ने कंधे और छाती के बीच चिर लगाकर वहाँ से दवाईयाँ दे रहे थे... सतावे दिन भाई साहब आये और बेड के करीब जाकर धीरे से राजकुमारी के कानों में कहा ''अब जाओ .... तुम्हारी ये हालत मुझसे देखी नहीं जाती.... संघ  पहले छोड़ने के लिए मैंने तुम्हे अब माफ़ किया .... जल्द ही मिलूँगा.'' सात दिन पहले ब्रेन हैमरेज के बाद कोमा में गई राजकुमारी इसके बाद दो घंटे में ही चल बसी... भैया कभी हारे नहीं थे, दो जवान बेटों की दुर्घटना में मौत के बाद भी उनके चेहरे पर हताशा नहीं थी ...लेकिन आज बूढ़े, थके हुए और हताश दिख रहे थे .... उन्हें रोना आता नहीं .... लेकिन छः महीने में एक दिन अचानक बीमार पड़े जब तक डाक्टर कुछ समझा पाते बुखार दिमाग पर चढ़ा.... खुद राजकुमारी से मिलने लम्बे सफ़र पर निकल चुके थे...
      
२- शशांक का  सुबह फोन आया की ''रवि जी माँ नहीं रही'' शशांक मेरे दोस्तों में से है,
 मै कई बार जब भी उनसे घर पर मिला हूँ  उनके पिता की उम्र क्या है इसका अंदाजा लगा ही नहीं पाया लगा था कोई 54-55 साल के होंगे !ऐसा मेरा मानना था लेकिन खुद दोस्त ने ही बाद में बताया कि पिता  अब करीब अठात्तर है...वो कैसे इतना फिट रहते है ?  मै लगातार शशांक से बाते करता रहा हूँ ... लेकिन जब शमशान से वापस लौट रहा था अचानक नजर शशांक के पिता पर पड़ी वो मुझे लगा की अब वो अस्सी बरस से कम नहीं है ...शशांक इन दिनों पिता अकेले ना रहे इस लिए उनके साथ ज्यादा वक्त दे रहे है... लेकिन ये बुढ़ापा अचानक उनके पिता में इतना कैसे आ गया .. ये पता  नहीं ?
३- बचपन से प्यारेलाल को मै जनता हूँ इंसानी बुराइयों की जितनी खूबिया होनी चाहिए करीब सभी उनमे थी... मुंबई में कमाई के बाद कभी गाँव में बीबी और बच्चों का ख्याल भी करना चाहिए इस बारे में उन्हेंने कभी सोंचा ही नहीं था .... एक दिन बीबी, बच्चो को छोड़  शहर आई.... और....प्यारेलाल को जानने वाले अजूबा देख रहे थे कि साल भर पहले का नास्तिक आदमी आस्तिक हो चुका था... नशा और दूसरी औरतों के पास जाने की आदत छुट चुकी थी.....और मकसद था बीबी और बच्चो  के भविष्य की तैयारी करनी ... अब प्यारेलाल रिटायर्ड हो चुके है और अपने खेतो में काम करते है ... पति-पत्नी में इतना जमती है कि आस-पास के लोग अब उन्हें लैला-मजनू बुलाते है ... मेरे एक शरारती भतीजे ने जब प्यारेलाल से ये पूंछा की 'भैया अगर भाभी पहले मर जाएगी तो आप कैसे रहोगे' तो करीब 75 साल के प्यारेलाल का जवाब था ''मै खुद फांसी लगा लूँगा'' 

कभी  यूरोप में लम्बे समय तक साथ रहने वाले जोड़ो पर सर्वे किया गया, निष्कर्ष निकला कि ज्यादातर जोड़ों के चेहरों में समानता होती है .... उसकी वजह हाव-भाव का एक जैसा मिलना भी हो सकता है ? लेकिन जब हिंदी के कवि बाबा नगार्जुन बुढ़ापे में प्रेम पर कविता लिखते है ....

 यह तुम थी.....

कर गई चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं
सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खड़ा कोढ़ी गूलर
ऊपर उठ आई भादों की तलैया
जुड़ा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं !                                     -   बाबा नागार्जुन 
- जर्जर तन में  प्रेम की ज्यादा जरुरत होती है ... समय के साथ ही साथी  ( यह तुम ) की कुछ आदत ही ऐसी  लग जाती है फिर जीवन उद्देश्य ही कुछ हल्का हो जाता है...बस यह तुम के लिए ----

Thursday, December 8, 2011

सियासी बिसात के मजबूर मोहरे !

( पिछले दिनों सामना हिंदी ने  एक  आलेख माँगा था खास कर मुंबई में रहा रहे उत्तर-भारतीय बनाम मराठी को लेकर चल रहे विवाद पर.... ये सामना का वही लेख है शायद पसंद आये ...शुक्रिया )
मुंबई किसकी ?
मराठी की, भईया की या इस शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आये और यही के होकर रह गए...
सवाल जितना मुश्किल है, जवाब उस से भी ज्यादा कठिन...लेकिन मुश्किल ज्यादा तब आती है जब इस सवाल का जवाब चुनाव के करीब खोजा जाता है...
अगले साल बीएमसी के चुनाव है..चुनावी दंगल के बाद ये तय हो पायेगा कि अगले पांच साल के लिए मुंबई पर किसका राज चलेगा...लेकिन इस लड़ाई के दौरान पिसेगा मुम्बईकर...मुंबई मेरी है या तेरी है का मुद्दा फिर से खूब उछलेगा ... एक मुम्बईकर दूसरे मुम्बईकर को फिर से शक की नज़र से देखेगा..एक मुम्बईकर को लगेगा की दूसरा उसके हक का मार रहा है...
ये मेरी निराशात्मक सोच नहीं है...दरअसल पिछले कुछ सालों से मैं ये मेरी मुंबई के साथ होते देख रहा हूँ...चुनाव करीब आते ही राजनेता सभी मुद्दे कहीं पीछे छोड़ देते हैं...मुंबई के विकास और आधारभूत सुविधाएँ को सुधारने की बात मुद्दे नहीं रहते और मुद्दा बन जाता है कि मुंबई किसकी है, मुंबई पर किसका हक है....
इसलिए जब उत्तर मुंबई से कांग्रेस के सांसद संजय निरुपम के बयान पर मुझे कोई अचरच नहीं हुई...निरुपम ने बयान दिया था कि अगर उत्तर भारतीयों ने एक दिन आराम किया, तो मुंबई ठप्प हो जाएगी...निरुपम ने ऐसा क्यों कहा, ये तो वो ही बेहतर तरीके से बता सकते हैं...लेकिन ये कहते हुए उन्हें शायद पुरानी बातें याद नहीं रही होगी...सालों पहले वो बिहार के रोहतास जिले से पटना, दिल्ली होते हुए मुंबई पहुंचे थे...तब के और अब के निरुपम में जो अंतर है वो मुंबई की ही देन है...इस शहर की बदौलत ही उन्होंने सिफर से शिखर का सफ़र किया है.. ऐसे में अगर कोई उस शहर को ठप्प करने वाला बयान देता है तो मुझे उस शख्स पर तरस आता है...शायद उन्होंने ऐसा बयान राजनैतिक कारणों के चलते दिया हो क्योंकि बीएमसी चुनाव के काउंटडाउन के साथ बिहार का महापर्व छठ भी नजदीक था...और कुछ सालों से छठ पूजा उन लोगों के निशानों पर है जिन्हें सूर्य को अर्ध्य देने वाले श्रद्धालु नज़र नहीं आते बल्कि नज़र आता है मुंबई में उत्तर भारतीयों का शक्ति-प्रदर्शन... संजय निरुपम सालों से मुंबई के जुहू तट पर छठ पूजा का आयोजन करते आये हैं...शायद वो अपने बयान से छठ पूजा के ज़रिये राजनीति गलियारे में अपनी ढुगढुगी बजाना चाहते हों...हुआ भी ऐसा ही...उनके बयान पर मुंबई में खूब बवाल मचा, और न्यूज़ चैनलों की ओबी वैन उनके छठ पूजा के कार्यक्रम के बाहर ३ दिन खड़ी रही..मतलब उन्हें और उनके कार्यक्रम को लगातार मीडिया कवरेज और स्पोट लाइट मिलता रहा...
दरअसल मैं लम्बे समय से टीवी न्यूज़ से जुडा रहा हूँ जिसकी वजह से मैं ये लगातार देखता आ रहा हूँ कि कैसे नेता ऐसे मौकों की तलाश में अपनी नज़र गडाए रहते हैं कि वो जनता से जुड़े मुद्दों को उठाये बिना ही उनका रहनुमा बन जाये...
कुछ ऐसा ही साल २००९ में देखने को मिला...सभी नए विधायकों को महाराष्ट्र के विधानसभा में शपथ दिलाया जा रहा था..हिंदी में शपथ लेने की वजह से एक विधायक की पिटाई हो गई...थोड़ी देर बाद पीटने वाले नेता मुंबई के इस्लाम जिमखाना में अपने समर्थकों के साथ थप्पड़ की शेखी बघारते दिखे...उन्हें गर्व था कि उन्होंने हिंदी के लिए लड़ाई लड़ी..वो फुले नहीं समां रहे थे कि अब इस शहर में उनसे बड़ा कोई उत्तर भारतीये नेता नहीं है...उनसे बड़ा कोई हिंदी बोलने वाले उत्तर भारतीयों का हितैषी नहीं है...उनके चेहरे से उस वक़्त ऐसा ही लग रहा था जैसे थप्पड़ नहीं, उन्हें बहादुरी का कोई मेडल मिला हो... दूसरी तरफ दादर के शिवाजी पार्क के एक फुटपाथ पर थप्पड़ मारने वाले विधायक टीवी न्यूज़ चैनलों से खुद को दिखाए जाने के लिए धन्यवाद दे रहे थे साथ ही अपने समर्थकों को टीवी कैमरों के सामने खड़े होने के लिए पुकार रहे थे...लेकिन इन सब के बीच इस बात पर शायद ही किसी ने गौर किया हो कि मंत्रिमंडल के शपथ समारोह में कुछ मंत्रियों ने मराठी में शपथ नहीं लिया था लेकिन इस पर किसी को आपत्ति नहीं...असल में विधान सभा के घटना में कुछ तो ये भी मानते हैं कि पीटने और पिटाई करने वालों में कुछ फिक्सिंग तो नहीं थी...
तो सवाल उठता है कि कहाँ से और कौन सी आवाज़ आती है कि हिंदी भाषी इस शहर को ठप्प करना चाहता है...क्या रोजाना कुआँ खोदकर पानी पीने वाले इस शहर को ठप्प कर सकते हैं? क्या रोज़गार देने वाला, परिवार चलने वाला शहर से वो ऐसे पेश आ सकता है? उनके दिमाग में तो बस और ज्यादा काम करके कुछ और रूपए कमाने का जद्दोजेहाद चलते रहता है...या ये आवाज़ उसकी है जिसे सिर्फ वोट से मतलब है...किसी बौरहे की गाय की तरह इन दिनों इस शहर का हिंदी भाषी नेतृत्व विहीन है...नेताओं को उसकी याद तब आती है जब वोट रूपी दूध निकलना होता है....तब नेता लप्पड़ खाए या खिलाये मकसद होता है भाषाई और प्रांतवाद की राजनीति कर काम निकालना .
संजय निरुपम के मुंबई ठप्प करने वाले बयान के बाद मेरे पास एक अंग्रेजी चैनल के प्रमुख ने जब किसी बड़े हिंदी भाषी से मिलने की इच्छा जताई जिसका कोई राजनीतिक सरोकार न हो तो मेरे लिए ये बड़ा मुश्किल काम बन गया...कई हिंदी भाषियों को जनता हूँ जो विभिन्न पार्टियों में बड़े नेता हैं, कुछ उनके उत्तर भारतीय सेल के प्रभारी...मुझे ऐसा कोई नहीं दिखा जो नामी हैं लेकिन बिना राजनीतिक सोच या झुकाव के..
करीब ४ साल पहले जब राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना मुंबई के सड़कों पर उत्तर भारतीय टैक्सी ड्राईवर और फेरी वालों की पिटाई कर रहे थे तब मैंने मुंबई में मराठी और उत्तर भारतीयों के बीच रिश्ते पर एक डॉक्यूमेंटरी बनायीं थी... बनाते वक़्त मेरी मुलाक़ात किरण नगरकर से हुई...मैंने उनसे मराठी-गैर मराठी पर हो रहे राजनीति पर सवाल पूछा था...उनका जवाब था कि पराजित मानसिकता के लोग विकास के बजाय इस तरह के हथकंडे अपनाते है...
मेरा मानना है कि हिंदी भाषियों की नुमाइंदगी के दावे करने वाले मुंबई के नेताओं को अपनी पार्टियों के मुखिया से ये क्यों नहीं पूछते कि जिन राज्यों से पलायन हो रहा है वहां वो विकास कार्य क्यों नहीं कर रहे हैं..आज राहुल गाँधी जब यूपी के वोटरों को महाराष्ट्र से भीख नहीं मांगने की नसीहत देते हैं...यू पी में अगले साल विधान सभा चुनाव है इसलिए राहुल को प्रदेश की याद आई नहीं तो देश और दूसरे कई राज्यों में सत्ता उन्ही कि पार्टी के पास सबसे ज्यादा वक़्त रही है...हिंदी भाषी प्रदेशों में विकास की गाड़ी रुकने की ज़िम्मेदारी राहुल क्यों नहीं लेते...
हिंदी भाषियों के नेता विकास की नहीं बल्कि राजनीति उन मुद्दों के लिए कर रहे है जिनका हिंदी प्रदेशो के लोगो से कोई लेना-देना ही नहीं है...ऐसा केवल महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि दिल्ली, पंजाब और आसाम में भी हो रहा है...मेरा मानना है कि ऐसी राजनीति काफी खतरनाक तो है ही साथ ही उत्तर भारतीयों के साथ नाइंसाफी क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदी भाषियों ने अपनी योग्यता का प्रमाण दिया है। हिंदी भाषियों ने, देश के जिस हिस्से में भी वे रहते हैं, बिना किसी भेदभाव के, उसके विकास में अपना शत प्रतिशत योगदान किया है।
मैं खुद उत्तर भारतीय हूँ...मेरा परिवार उत्तर प्रदेश से इस शहर में करीब १२० साल पहले आया था...मेरे परिवार ने शहर को बढ़ते और उन्नति करते देखा और उसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लिया..लेकिन जब कभी भी मराठी-गैर मराठी पर राजनीति होती है तो इस शहर में मेरे परिवार का १२० साल पुराना नाता बौना हो जाता है...इस संकीर्ण राजनीतिक एजेंडा मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर ये कबतक चलेगा और क्यों चल रहा है....क्योंकि मुझे लगता है जो मुंबई में रहता है वो मुंबईकर और जो महाराष्ट्र में रहता है वो महाराष्ट्रीयन है... मराठी तो इस बात को मानते हैं कि ‘पूरे विश्व ही माझे घर’ यानी पूरा विश्व ही मेरा घर है...और ये सोच आज की नहीं है... ग्लोबल विलेज की सोच सैकड़ों साल पहले संत ज्ञानेश्वर ने महाराष्ट्र को दी थी।
इसलिए जब बयान आता है कि शहर किसका है, कौन इस शहर को ठप्प कर देगा तो सचमुच इस शहर के उस मज़दूर के मन में डर ज़रुर भर जाता है...क्योंकि उसका असर भी तुरंत सड़कों पर देखता है...दिहाड़ी करने वाले मजदूरों पर लाठियां बरसती है...टैक्सी टूटती है... वो काम करता है....एक दिन काम बंद होने की कीमत वो जनता है...उसे मालूम है कि वो काम पर जायेगा तब ही घर में चूल्हा जलेगा...ऐसे में वो शहर को क्यों ठप्प होते देखेगा...मुझे मालूम है कि तालियाँ दोनों हाथों से बजती हैं लेकिन मेरी शिकायत उनसे ज्यादा हैं जो उत्तर भारतीयों को वोट बैंक समझते हैं..अपनी जागीर समझते हैं...खुद को उनका हितैषी कहकर उलजुलूल बयान देकर उनका नुक्सान ही करते हैं...मेरी गुजारिश है कि वो उत्तर भारतीयों को उनके हाल पर छोड़ दें, वो खुद के भरोसे रोजी-रोटी कमाने के लिए सैकड़ों मील दूर मुंबई आया है..उसके लिए क्या भला है और क्या बुरा वो खुद तय करने में सक्षम है...उसे अपनी राजनीति के बिसात पर मोहरा न बनायें...




Wednesday, July 6, 2011

दही हांडी

वाकडी चाल (टेढ़ी) में इस बार सचिन और तान्या गोविंदा नहीं खेलेंगे बल्की खुद मटकी बन लटके रहेंगे ... अब तक इस त्यौहार की वो शान थे लोगो को महीने भर से प्रेक्टिस  कराने से लेकर कहाँ-कहाँ मटकी फोडनी है और मानवीय पिरामिड (मीनार, थर ) में कौन किस उंचाई  पर रहेगा ये जिम्मेदारी भी उनकी होती थे... माने तो गोविंदा त्यौहार  के दोनों मैनेजर थे और बाकी साथी मजदूर .... मै अकसर उस टोली का हिस्सा भर रहा हूँ लीडर रहे सचिन और तान्या... लेकिन गोविंदाओ को जमा करने लेकर मैनेजमेंट के बीच  वो मटकी कब बन गए इसका अभी भी वाकडी चाल   के लोगो को यकींन ही  नहीं आता .
 
     मुंबई में बैठे मेरे दोस्तों त्यौहार और मस्ती की बात करते हुए  मुंबई की दही-हांडी यानी गोविंदा तक पहुँच गए ... बचपन से लगातार कालाचौकी और लालबाग इलाकों में ऐसे  त्यौहार को मै देखता आ रहा हूँ ...आज टीवी चैनलों पर जो गोविंदा हम देख रहे है वो पहले की तरह नहीं है  चाल- गली मोहल्ले से शुरू खेल कुछ इलाको के  दही-हांडी तक सिमटा था...मटके की उंचाई सिमटी थी और उस वक्त तक ज्यादा गिराकर मारने की गोविंदा की घटनाये शायद ही हुआ करती थी.. आम तौर पर हड्डी  टूटने, हाथ-पैर में चोट की जो एक दो घटनाये होती भी थे उसके लिए किसी एक को जो थर में शामिल था उसे जिम्मेदार मन लिया जाता था की.... शायद ज्यादा चढ़ गई होगी... लेकिन पिछले  साल दही काल के इस खेल में तीन नवयुवक मौत की भेंट चढ़ा गए  वजह थी त्यौहार प्रतियोगिता बन गया है इनामी धन रसूखदार आयोजक उंहें और उचाई चढाने के लिए मजबुर कर रहे है.        
  लेकिन मै बात तान्या और सचिन की कर रहा हूँ दरअसल दसवीं  फेल होने के बाद अब उनके पास काम था त्यौहार मनाना, क्रिकेट खेलना , और चाल की लड़कियों की दूसरो से बचाना, एक ऐसा सरोकार जिसके लिए कुछ मिलना तो नहीं लेकिन दूसरो से लड़ाई जरुर हो जाती थी...
 
उस साल गोविंदा पथक के साथ निकले थे  वो दोनों... दूसरी चाल के लोगो से किसी छोटी सी बात पर लड़ाई हो गई बात मार-पीट तक आ गई बिच-बचाव में बात आगे नहीं बढी लेकिन एक रंजीश की शुरुआत हो चुकी थी... कुछ दिनों बाद सचिन को अकेला पाकर दूसरी चाल के लोगो पिटाई कर दी चोट चहरे पर आई थी...इस लिए तान्या और दोस्तों ने बदला लेने की तैयारी भी कर ली और मारपीट करने वाले एक लडके की कुछ पिटाई इस तरह से कर दी की हास्पिटल में एक दिन के उसके मौत हो गई... अब तान्या का भाई 'दगडू' और सचिन की नौकरी करने वाली मान 'नयना' पुलिस चौकी और अदालत के चक्कर लगा रहे थे...
 
छः  महीने बाद दोनों बहार निकले  तो दोनों किसी शापित देवता से कम नहीं थे कभी अपनो के लिए दूसरो से लड़ाई तो कभी खुद के लिए अपनो से वसूली... जेल ने उन्हें काफी कुछ सिखा दिया था...लेकिन हत्या की रंजीश ख़त्म नहीं हुई थी कुछ दिनों के बाद तीन लोग चाल में आये  और तान्या को करीब दर्ज़न भर गोली मार कर चले गए इस बार रजिंश  में चाल के लोगो ने 'गैंगवार' जैसी घटना अपने करीब देखी  था.  अब बारी थी सचिन ने  उसने दूसरी गैंग के लोगो के साथ मिलकर फिर दो लोगो की हत्या की और एक दिन फिर पुलिस की गोली का इंतजार भी ख़त्म हुआ.... पुलिस ने तान्या और सचिन के नाम दर्जन भर डकैती और कई हत्या के मामले का हल खोज निकाला था...
 
    गोविंदा फिर आया है वाकडी चाल में इस बार एक मटकी के साथ दो मटकी लटकी है तान्या और सचिन के नाम, पारदर्शी प्लास्टिक में  कुछ सौ रुपयों  के साथ खीरा और केले के भी साथ लटके हुए है साथ तान्या और सचिन के फोटो भी.. लेकिन चाल में इस बार 'गोविंदा आला रे' का कोई उल्लास दिखाई नहीं दे रहा.